• Dec 08 2022

पेंटागन की एक ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि चीन, 2035 तक अपने परमाणु हथियारों के भंडार को तीन गुना बढ़ाने का इरादा रखता है. भारत के लिए इसके गहरे मायने हैं .

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अमेरिका के रक्षा मंत्रालय (पेंटागन)ने अमेरिकी संसद को जो रिपोर्ट सौंपी है, वो मंगलवार को सार्वजनिक की गई. इसमें भारत और उससे जुड़े मुद्दों का भी बड़े स्तर पर ज़िक्र किया गया है. यहां इस बात पर ज़ोर दिए जाने की आवश्यकता है कि ये रिपोर्ट अमेरिका के एक ऐसे प्रमुख सरकारी विभाग की है, जो अमेरिका की सुरक्षा सुनिश्चित करने पर भारी मात्रा में पैसे ख़र्च करता है. पेंटागन के ख़र्च के लिए इस रक़म को अमेरिकी संसद से मंज़ूरी दी जाती है, और इसीलिए, कई बार पेंटागन की रिपोर्ट में ख़तरों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, जिससे सच्चाई के उलट ये लगे कि ख़तरा सिर पर है और बहुत बड़ा है. इसके साथ साथ, भले ही पेंटागन को बातें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का दोषी माना जाए, लेकिन इसके मूल्यांकन कोरी कल्पना नहीं होते, बल्कि ज़मीनी स्तर पर आ रहे परिवर्तनों के आधार पर किए गए आकलन होते हैं.

2022 की रिपोर्ट की सबसे बड़ी बात ये है कि 2035 तक चीन अपने परमाणु हथियारों के भंडार को तीन गुना तक बढ़ा सकता है. ये एक ऐसी बात है, जो भारत के लिए बहुत मायने रखने वाली है. पेंटागन की रिपोर्ट में भारत और चीन के सीमा के विषय पर भी बहुत कुछ लिखा गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैनिकों की तैनाती लगातार बढ़ा रही है और सीमा पर अपने मूलभूत ढांचे को भी लगातार विकसित कर रही है.’

पेंटागन की रिपोर्ट में भारत और चीन के सीमा के विषय पर भी बहुत कुछ लिखा गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैनिकों की तैनाती लगातार बढ़ा रही है और सीमा पर अपने मूलभूत ढांचे को भी लगातार विकसित कर रही है.

इस समय चीन के परमाणु हथियारों का भंडार अभी भी रूस और अमेरिका की तुलना में बहुत मामूली है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) के अनुसार जनवरी 2022 तक, रूस ने 1588 परमाणु हथियार तैनात कर रखे थे और 2889 का भंडार जमा कर रखा है. वहीं, अमेरिका ने 1744 परमाणु हथियार तैनात कर रखे हैं, तो 1964 का भंडारण किया हुआ है. चीन के बारे में कहा गया था कि उसने 350 परमाणु हथियार जमा कर रखे हैं. जबकि भारत और पाकिस्तान के पास 160-160 परमाणु हथियार हैं.

अगर चीन अगले 12 वर्षों में अपने परमाणु अस्त्रों को तीन गुना बढ़ाता है, तो उनकी संख्या 1500 तक पहुंच जाएगी, जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है. लेकिन, हमारे पास इस दावे के जो सबूत हैं, वो ठोस नहीं हैं. प्राथमिक तौर पर पेंटागन का ये दावा, चीन के फास्ट ब्रीडर रिएक्टर कार्यक्रमों पर आधारित है, जो धीरे धीरे चालू हो रहे हैं. पेंटागन की रिपोर्ट में अंदाज़ा लगाया गया है कि चीन इन रिएक्टरों से अतिरिक्त परमाणु हथियार बनाने के लिए प्लूटोनियम बनाने वाला है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि जहां पश्चिमी देशों ने फास्ट ब्रीडर कार्यक्रमों को तिलांजलि दे दी है, वहीं चीन और भारत जैसे देश अभी भी उनका इस्तेमाल कर रहे हैं.

अमेरिका अपने दावे के पक्ष में कुछ अतिरिक्त सबूतों का भी हवाला दे रहा है, जिनमें लंबी दूरी की मिसाइलों के लिए नए ठिकानों का निर्माण शामिल है. पिछले वर्ष अमेरिका ने ये राज़ खोला था कि ऐसे कम से कम तीन स्थान हैं, जहां पर चीन, लंबी दूरी की कम से कम 250 मिसाइलें रखने की व्यवस्था बना रहा है. हालांकि, ये स्पष्ट नहीं है कि चीन द्वारा इन ठिकानों के निर्माण का मक़सद, मौजूदा मिसाइलों को ही स्थानांतरित करने के लिए किया जा रहा था, या फिर इन्हें नई मिसाइलें और परमाणु हथियार रखने के लिए निर्मित किया जा रहा था. कई दशकों से लंबी दूरी की मिसाइलें रखने के लिए चीन के पास केवल 20 ठिकाने हैं.

इस आंकड़े के पीछे जिस एक और स्रोत के होने की संभावना है, वो ये है कि पेंटागन ने अपने इस दावे के लिए ग्लोबल टाइम्स के प्रभावशाली पूर्व संपादक हू शिजिन का हवाला दिया है. हू शिजिन ने 2020 में ग्लोबल टाइम्स के संपादक के तौर पर अपने अख़बार में लिखा था कि चीन को बहुत कम समय में अपने परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाकर 1000 करने की आवश्यकता है और उसे अपने पास मौजूद DF 41 मिसाइलों की संख्या बढ़ाकर कम से कम 100 तक पहुंचानी चाहिए. अभी हाल ही में हू शिजिन ने ट्वीट किया था कि अगर चीन उस स्तर की परमाणु शक्ति का निर्माण नहीं करता है, तो फिर वो ताक़त के दम पर ताइवान को चीन में मिलाने से रोकने की अमेरिकी कोशिशों को रोक पाने में समर्थ नहीं होगा.

अमेरिका के मिसाइल डिफेंस और सटीक निशाना लगाने वाले पारंपरिक हथियार, बहुत फुर्ती और आसानी से चीन के पलटवार करने वाले हथियारों के छोटे ज़ख़ीरे को बेअसर बना सकते हैं.

ट्रंप प्रशासन ने रूस के साथ चीन को भी अस्त्र नियंत्रण की त्रिपक्षीय वार्ताओं में शामिल करने का प्रयास किया था. ट्रंप प्रशासन ने इन वार्ताओं के साथ रूस और अमेरिका के बीच 2010 में हुई न्यू स्ट्रैटेजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (NEW START) की समय सीमा को भी बढ़ाने की शर्त भी जोड़ दी थी. क्योंकि इस संधि की समय सीमा फरवरी 2021 में समाप्त हो रही थी. बाइडेन प्रशासन ने इस संधि को आगे बढ़ा दिया था. लेकिन ये भी स्पष्ट कर दिया था कि वो भविष्य के किसी भी समझौते में चीन को भागीदार बनाना चाहेगा.

चीन की परमाणु नीति

इन हालात में जो पहला सवाल दिमाग़ में आता है, वो ये है कि क्या चीन अपनी ‘पहले इस्तेमाल न करने की परमाणु नीति’ से दूरी बना रहा है. जैसा कि 2019 के रक्षा से जुड़े श्वेत पत्र में कहा गया था कि चीन ‘ किसी भी समय या परिस्थिति में पहले परमाणु हमला न करने की अपनी नीति’ के प्रति वचनबद्ध है. इसके अलावा इस श्वेत पत्र में ये भी कहा गया था कि चीन ‘परमाणु हथियारों की किसी भी होड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता हैट, और अपने टपरमाणु हथियारों की क्षमता को राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतों के अनुसार बेहद न्यूनतम स्तर पर बनाकर रखता है.’

इस चिंता की प्राथमिक वजह ये थी कि अमेरिका के मिसाइल डिफेंस और सटीक निशाना लगाने वाले पारंपरिक हथियार, बहुत फुर्ती और आसानी से चीन के पलटवार करने वाले हथियारों के छोटे ज़ख़ीरे को बेअसर बना सकते हैं. इन सभी कारणों से ही चीन ने अपने हथियारों के भंडार का आधुनिकीकरण करना शुरू किया था, जिसमें मिसाइलें रखने के नए ठिकाने और सड़क के रास्ते लंबी दूरी की मिसाइलें ले जाने के मूलभूत ढांचे और नई सामरिक परमाणु पनडुब्बियों का निर्माण करना शामिल है.

अमेरिका से निपटने के लिए चीन जिन हथियारों का विकास कर रहा है, वो भारत के लिए ख़तरे की घंटी होंगे और उसे मुश्किल में डाल देंगे. ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि चीन के मुक़ाबले कमज़ोर भारत, हिंद प्रशांत क्षेत्र में कई देशों के साथ गठबंधन बना रहा है, ताकि चीन के साथ संतुलन बना सके.

कार्नेगी के न्यूक्लियर पॉलिसी प्रोग्राम के सीनियर फेलो टोंग झाओ के मुताबिक़, मानव अधिकारों, लोकतांत्रिक मूल्यों, क़ानून के राज जैसे कई मुद्दों पर पश्चिमी देशों के साथ लगातार बढ़ते तनाव के कारण, चीन को ये लगता है कि वो एक ऐसी भू-राजनीतिक स्थिति में पहुंच गया है, जिसका इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगी देश चीन को नियंत्रित करने के लिए कर रहे हैं.

इसके साथ साथ, पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार, चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भी काफ़ी निवेश कर रहा है, ताकि वो होड़ में आगे निकल सके और पलटवार भी कर सके. पेंटागन का कहना है कि चीन अंतरिक्ष में मिसाइलों को नष्ट करने, ज़मीन पर स्थित लेज़जर और अंतरिक्ष का चक्कर लगाने वाले रोबोट का विकास कर रहा है.

भारत की दुविधा

इन सभी बातों से भारत के सामने दुविधा खड़ी हो जाती है. भारत द्वारा अपने ‘पहले परमाणु अस्त्र इस्तेमाल न करने की नीति’ में संशोधन करने की चर्चा चल रही है. हालांकि इस मामले में कोई ठोस बदलाव आता फिलहाल नहीं दिख रहा है. भारत अभी भी अपने मिसाइलों के ज़ख़ीरे का निर्माण बहुत धीमी गति से कर रहा है. अजित डोवाल जैसे सुरक्षा अधिकारियों या फिर दिवंगत पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के बयानों से ऐसा ज़रूर लगता है कि भारत अपनी ‘पहले परमाणु हथियार इस्तेमाल न करने की नीति’ को मानता ही रहेगा, इसका कोई तय नियम नहीं है.

लेकिन, अगर चीन अपने परमाणु हथियारों के मौजूदा भंडार को दोगुना भी करता है, तो भारत के परमाणु हथियारों की संख्या पर दोबारा विचार करने की ज़रूरत पड़ सकती है. इसके पीछे तर्क यही है कि अमेरिका के मुक़ाबले में चीन द्वारा अपनी रक्षा क्षमताओं का आधुनिकीकरण और विस्तार, भारत को भी अपनी क्षमताओं के विकास का ठोस आधार देता है.

अमेरिका को दूर रखने के लिए चीन न केवल एक खास आकार के परमाणु हथियार बनाएगा, बल्कि वो इसके लिए अमेरिका के भारी तबाही मचाने वाले हथियारों (BMD) के सामने अपना अस्तित्व बचाने और पलटवार करके लड़ पाने की क्षमता का भी हिसाब लगाएगा. इसमें सिर्फ़ परमाणु हथियार और उन्हें छोड़ने के माध्यम जैसे कि विमान और पनडुब्बियां ही शामिल नहीं हैं. बल्कि इनमें आक्रमण और आत्मरक्षा के लिए अंतरिक्ष पर आधारित व्यवस्थाएं भी शामिल हैं.

अमेरिका से निपटने के लिए चीन जिन हथियारों का विकास कर रहा है, वो भारत के लिए ख़तरे की घंटी होंगे और उसे मुश्किल में डाल देंगे. ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि चीन के मुक़ाबले कमज़ोर भारत, हिंद प्रशांत क्षेत्र में कई देशों के साथ गठबंधन बना रहा है, ताकि चीन के साथ संतुलन बना सके. पेंटागन की रिपोर्ट कहती है कि चीन ने ‘अमेरिकी अधिकारियों को चेतावनी दी है कि वो उसके और भारत के रिश्तों में दख़लंदाज़ी न करें’. ये साफ़ नहीं है कि इसका क्या मतलब है, क्योंकि भारत, अमेरिका के साथ संबंध मज़बूत करके सुरक्षा कवच ही नहीं हासिल करना चाह रहा, बल्कि वो अमेरिका से मुख्य रूप से ऐसी तकनीक और हथियार हासिल करना चाह रहा है, जो उसे चीन से मुक़ाबला कर पाने में सहयोग दें.

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ये लेखक के निजी विचार हैं।

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